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एक देश-एक पाठ्यक्रम, एक देश-एक बोर्ड से समानता की तरफ बढ़ेंगे कदम

एक देश-एक शिक्षा, एक देश-एक पाठ्यक्रम और एक देश एक बोर्ड होने से समानता आएगी। यदि, भारत के सभी स्कूलों का पाठ्यक्रम एक हो और सभी स्कूलों को एक बोर्ड इंडियन एजुकेशन बोर्ड कर दिया जाता है तो और अधिक समानता आएगी। अलग-अलग राज्यों के अधीन बोर्ड जैसे यूपी बोर्ड, एमपी बोर्ड, बिहार बोर्ड, राजस्थान बोर्ड, आईसीएसई बोर्ड, सीबीएसई बोर्ड सभी को संकलित करते हुए भारतीय शिक्षा पर आधारित एक देश-एक बोर्ड कर दिया जाता है तो यदि भारत का बच्चा विदेश में शिक्षा लेने के लिए जाएगा और उससे पूछा जाएगा कि वह किस बोर्ड से है, तो उसका उत्तर इंडियन एजुकेशन बोर्ड होगा न कि यूपी बोर्ड, बिहार बोर्ड, राजस्थान बोर्ड, मध्य प्रदेश बोर्ड, छत्तीसगढ़ बोर्ड आदि।

नई शिक्षा नीति 2020 के अनुसार सरकार की भी यह इच्छा है कि मैकाले की अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा से आंशिक रूप से मुक्ति प्रदान करते हुए क्षेत्रीय भाषाओं पर आधारित शिक्षा अपनाई जाए ताकि लोगों को अपनी मूल भाषा में शिक्षा मिले। पहले भी मूल भाषा पर आधारित शिक्षा के कारण ही भारत ने विश्व गुरु का दर्जा हासिल किया था, साथ ही संपूर्ण भारतवर्ष के विद्यालयों में यदि केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से संबद्ध सभी विद्यालयों और राज्य विद्यालयों में एनसीईआरटी द्वारा निर्मित पाठ्यक्रम चलाया जाता है तो स्कूलों के द्वारा जो प्रति वर्ष पाठ्यक्रम बदल दिया जाता है, वह सिलसिला निश्चित रूप से बंद हो जाएगा और बार-बार जब किताबें नहीं बदलेंगी। इसका सबसे बड़ा फायदा अभिभावकों को होगा और विद्यार्थियों को भी सहूलियत होगी।

कम से कम विद्यालय में एक ही पाठ्यक्रम (एनसीईआरटी द्वारा निर्मित) चलने पर यह सुविधा हो ही जाएगी कि यदि दो भाई-बहन हैं, और कक्षा 6 वाला बच्चा सात में जाता है तो कम से कम छोटी बहन को उसकी किताबें पढ़ने को मिल जाएंगी। सैकड़ों क्विंटल किताबें रद्दी में जाने से बच जाएंगी। पर्यावरण को भी लाभ होगा। यह मुहिम यदि देशव्यापी चलाई जाती है तो संपूर्ण भारत वर्ष के अभिभावकों को लाभ होगा, साथ ही मासूम नौनिहालों के नाजुक कंधों पर जो मनमानी किताबों का बोझ डाल दिया जाता है, उससे भी राहत होगी।

इसके अलावा प्रोफेसर यशपाल के द्वारा की गई सिफारिश भी पूर्ण रूप से लागू हो जाएंगी। प्रोफेसर यशपाल के द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा परिचर्चा 2005 में यह सुझाव दिया गया था कि मासूमों के नाजुक कंधों पर किताबों का बस्ते का भारी बोझ है। बस्ता भारी होने से बच्चों में नाना प्रकार की बीमारियां उत्पन्न हो रही हैं, साथ ही उन्हें आनंद पूर्ण और जिज्ञासा पूर्ण शिक्षा नहीं मिल रही है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इस बात पर भी जोर दिया गया है कि बच्चों की पढ़ाई रटंत प्रणाली से मुक्त हो।

एक देश-एक पाठ्यक्रम के अस्तित्व में आने से निजी शिक्षण संस्थानों द्वारा की जा रही मनमानी पर लगाम लगेगी। दिन-प्रतिदिन भारी होते बैग का वजन कम होगा और बच्चों को कंधे, रीढ़ की हड्डी में दर्द की शिकायत से भी मुक्तिल मिल जाएगी। जहां तक जानकारी है कि बच्चों की कॉपी-किताब का बोझ, बच्चों के वजन का 10% से ज्यादा नहीं होना चाहिए। परंतु, निजी शिक्षा संस्थानों के द्वारा प्राइवेट प्रकाशकों की मिलीभगत से महंगी और मानक विहीन पुस्तकें चलाई जा रही हैं। बार-बार पाठ्यक्रम बदलने का सिलसिला जारी है।

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शिक्षा महंगी होती जा रही है, जिस कारण आम अभिभावक शिक्षा के बोझ से तड़प रहा है और बार-बार बाजार से किताबें खरीदने के लिए मजबूर हो रहा है। बार-बार पाठ्यक्रम बदलने से यदि घर में बड़े भाई की बहन छोटी है तो वह भी अपने भाई की किताबें अगली कक्षा में प्रयोग नहीं कर पाती, क्योंकि स्कूलों के द्वारा प्रत्येक वर्ष मनमाफिक प्रकाशकों की मनमानी संख्या में किताबें लगाकर मासूमों के नाजुक कंधों का स्कूल बैग भारी कर उनका मानसिक, शारीरिक और उनके अभिभावकों का आर्थिक शोषण किया जा रहा है।

हर साल करोड़ों क्विंटल किताबें रद्दी के भाव बिक जाती हैं। इससे हर पर्यावरण को भारी नुकसान हो रहा है। शिक्षा दिन-प्रतिदिन महंगी होती जा रही है। सरकार को चाहिए कि पूरे भारतवर्ष में एक देश-एक पाठ्यक्रम, एक देश-एक शिक्षा लागू करने पर विचार करे। इससे बहुत सारे बदलाव देखने को मिलेंगे। अभिभावकों को बार-बार किताबें बदलने से मुक्ति मिलेगी, कितानों का पुनः इस्तेमाल हो सकेगा।

भारतवर्ष के सभी शिक्षण संस्थानों में केंद्रीय विद्यालय, सैनिक स्कूल, नवोदय विद्यालय की भांति एक देश-एक पाठ्यक्रम अर्थात एनसीईआरटी पाठ्यक्रम लागू किया जाए। बच्चा चाहे अर्दली का हो या न्यायाधीश का, चपरासी का, आईएएस का, संतरी का या फिर किसी मंत्री का, सभी बच्चों को पढ़ने के लिए एक पाठ्यक्रम मिलेगा।

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चाहे कोई प्राइमरी पाठशाला में पढ़े या कोई कान्वेंट स्कूल में, परंतु पाठ्यक्रम एक होना चाहिए। इस पर सरकार को चाहिए कि पूरे देश से सुझाव आमंत्रित करे कि आखिर एक देश-एक पाठ्यक्रम लागू कैसे किया जाए। वर्तमान में भारत जिले में जितने भी विद्यालय हैं, सभी विद्यालयों में अलग-अलग पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं। जबकि उनके मान्यता प्राधिकारी या तो बेसिक शिक्षा है या जूनियर अथवा सीबीएसई बोर्ड, आईसीएसई बोर्ड और राज्य शिक्षा बोर्ड है। एक ही मान्यता प्राधिकारी होने के बावजूद हर स्कूल में अलग-अलग पाठ्यक्रम, निजी शिक्षण संस्थान अपने मनमुताबिक चला रहे हैं।

बार-बार पाठ्यक्रम बदलने के लिए और महंगी किताबों पर रोक लगाने के लिए संपूर्ण भारत वर्ष की शिक्षा व्यवस्था को एक देश-एक पाठ्यक्रम, एक देश-एक शिक्षा और एक देश-एक बोर्ड से युक्त होना चाहिए।

अभी हाल ही में केंद्र सरकार के द्वारा भारत के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में इंटरमीडिएट की परीक्षा के बाद प्रवेश के लिए जो एक देश-एक परीक्षा का कार्यक्रम बनाया है, वह अत्यंत ही सराहनीय है। केंद्र सरकार ने निश्चित रूप से ऐसा अनुभव किया है कि देश के अलग-अलग बोर्डों से पढ़कर आने वाले बच्चों के स्नातक में प्रवेश के लिए उनके प्राप्तांक (इंटरमीडिएट के) के आधार पर केंद्रीय विश्वविद्यालयों, खासतौर से दिल्ली यूनिवर्सिटी मेरिट बनाकर प्रवेश लिया जाता था, लेकिन केंद्र सरकार ने यह एक अत्यंत ही सराहनीय कदम उठाया है कि इंटरमीडिएट के बाद सभी छात्रों को उनके नंबर के आधार पर नहीं, बल्कि नेशनल टेस्टिंग एजेंसी द्वारा निर्धारित एक परीक्षा के आधार पर, जो पात्र माने जाएंगे, उसी के आधार पर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए पात्र होंगे।

सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम अत्यंत ही सराहनीय है। विश्व विद्यालय अनुदान आयोग के द्वारा यह छात्र हित में उठाया गया कदम मील का पत्थर साबित होगा। लेखकः स्वतंत्र रावत बुंदेलखंड, चित्रकूट धाम।

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