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रेड कारपेट पर किसका कितना वजूदः कालीन जितनी ही सतरंगी है कालीननगरी की राजनीति!

भदोही (संजय सिंह). भदोही की रंगबिरंगी कालीन जितनी खूबसूरत होती है, उतनी ही खूबसूरत और रंगबिरंगी यहां की राजनीति है। बड़ी बात यह कि यह सीट पूरब में काशी तो पश्चिम में प्रयाग के मध्य स्थित है। दक्षिण में मिर्जापुर तो उत्तर में जौनपुर है।

पांच विधानसभाओं (भदोही, ज्ञानपुर, औराई सुरक्षित के अलावा प्रतापपुर और हंडिया प्रयागराज में आती हैं) को मिलाकर बनी भदोही लोकसभा सीट पर जिले की तीनों विधानसभाओं में बिंद और अन्य अति पिछड़ी जातियों की तादाद अच्छी-खासी है।

मतदान के छठवें चरण (Lok Sabha elections) में शामिल भदोही लोकसभा सीट से प्रचार थम गया है। 25 मई को वोट डाले जाएंगे। चुनाव प्रचार का शोर थमने के बाद अब सियासी गलियारे में हार-जीत की चर्चाओं का दौर शुरू हो चुका है।

भारतीय जनता पार्टी अपने प्रत्याशी डा. विनोद बिंद के जरिए हैट्रिक लगाने की तैयारी में है तो दूसरी तरफ इंडी गठबंधन के सहयोगी दल टीएमसी के प्रत्याशी ललितेशपति त्रिपाठी भाजपा के विजयरथ को रोकने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं।

आमने-सामने की दिख रही इस लड़ाई में तीसरे उम्मीदवार हरिशंकर चौहान उर्फ दादा भी हैं, जो चुनावी रण में उतनी सक्रियता तो नहीं दिखा पाए, लेकिन इनका सिंबल दमदार है। हरिशंकर चौहान को बहुजन समाज पार्टी ने अपना प्रत्याशी बनाया है और भदोही लोकसभा सीट पर जब से चुनाव होते आ रहे हैं, बसपा ने ही इस सीट से जीत का शुभारंभ किया था।

साल 2009 के चुनाव (Lok Sabha elections) में बहुजन समाज पार्टी के सिंबल पर पंडित गोरखनाथ पांडेय ने जीत दर्ज की थी। उन्हे 1,95,808 वोट मिले थे, जबकि मौजूदा समय में रूल कर रही सत्ताधारी पार्टी भाजपा यहां के पहले चुनाव में पांचवें पायदान पर थी। 2009 में भाजपा के डा. महेंद्रनाथ पांडेय को कुल 57,672 वोट मिले थे।

मौजूदा सिनेरियो की बात करें तो इस चुनाव में भाजपा प्रमुख दल के रूप में है तो दूसरे स्थान पर टीएमसी। टीएमसी इसलिए, क्योंकि इसे कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का पूरा समर्थन है।

अब जातीय समीकरण को समझने की कोशिश करें तो यह सीट ब्राह्मण, बिंद और दलित बाहुल्य है। इसके अलावा मुस्लिम, यादव, राजपूत व अन्य भी मतदान को एक तरफ मोड़ने की ताकत रखते हैं। 2014 के चुनाव में यहां से सपा व बसपा ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था, जिसमें दोनों पार्टियों के प्रत्याशियों को कुल 49.30 फीसद (कुल मतदान 53.54 फीसद) वोट मिला था, जबकि विजेता भाजपा को 41.10 फीसद वोट मिले थे।

हालांकि 2019 के Lok Sabha election में चुनावी समीकरण बदल गया था और यह चुनाव सपा-बसपा ने एक होकर लड़ा था और यह सीट बसपा के खाते में थी। 2019 में भी सपा-बसपा ने मिलकर कुल मतदान (53.51 फीसद) का 44.85 फीसद वोट हथियाया था। हालांकि, दूसरी मोदी लहर में भाजपा के वोट ग्राफ में अप्रत्याशित रूप से इजाफा हुआ और पांच साल पहले 41.10 फीसद वोट पाने वाली भाजपा ने 49.05 फीसद वोट झटक लिए।

2009 के चुनाव को दरकिनार कर दें तो इतना तो क्लीयर है कि भाजपा लगातार नंबर वन बनी हुई है और सपा बसपा ने अकेले और साथ लड़कर भी वह ऊंचाई नहीं पा सकी।

जातीय समीकरणों में सबसे ऊपर ब्राह्मण मतदाता हैं, बावजूद इसके सिर्फ एक बार ही ब्राह्मण वर्ग के प्रत्याशी को जीतने का मौका मिला। दूसरे सबसे बड़े वोटर वर्ग से ताल्लुक रखने वाले सांसद रमेशचंद्र बिंद का भाजपा ने टिकट काटा तो वह सपा (सपा प्रत्याशी मिर्जापुर लोकसभा सीट) में चले गए। इससे यह कयास लग रहा था कि अब यह सीट निकालना भाजपा के लिए मुश्किल होगी, पर भाजपा ने रमेशचंद्र बिंद के चले जाने से हो रहे नुकसान की भरपाई डा. विनोद बिंद (भाजपा प्रत्याशी) से कर ली।

अब तक हुए तीनों लोकसभा चुनावों में बसपा या तो विजेता रही या फिर दूसरे नंबर पर। अब देखना यह है कि मौजूदा सिनेरियो में सपा-कांग्रेस समर्थित टीएमसी जो दूसरे नंबर पर दिख रही है, वास्तव में रेड कारपेट पर उसका कितना वजूद है, क्योंकि उत्तर प्रदेश के मतदाता हाथ का पंजा, साइकिल, हाथी और कमल का फूल ही याद कर पाए हैं।

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