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गांधी जयंती पर विशेषः “प्रकृति जरूरतों की पूर्ति कर सकती है पर तृष्णा की नहीं”

“प्रकृति सभी मनुष्यों के आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर सकती है, परन्तु उनके तृष्णा की नहीं”। बापू अर्थात महात्मा का यह विचार आज की उपभोक्तावादी व पूंजीवादी विश्व के लिए एक संतुलित आदर्श नीति है, जिसने सतत् विकास की अवधारणा को मजबूती प्रदान की। गांधी जी सदैव सवहंनीय विकास के पक्षधर रहे। अर्थात एक ऐसा विकास, जो वर्तमान के संतुलित वितरण के साथ आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्राकृतिक संसाधनों के उचित संरक्षण व उपलब्धि पर आधारित है।

गांधी जी के अर्थ-पद्धति संबंध के विचार सदाचार पूर्ण पर आधारित हैं। उन्होंने अर्थशास्त्र व आचार-शास्त्र में कुछ अंतर नहीं किया। आर्थिक जीवन को सदाचारपूर्ण बनाने के लिए उन्होंने आर्थिक क्षेत्र में कई मानदंड रखें। इस पर गांधी जी के निजी आचार-शास्त्र ईश्वर के प्रति विश्वास, ईश्वर के प्रयोजन संबंधी विचार, सभी मानवीय क्रियाकलापों को अहिंसा पर आधारित करने की आवश्यकता, मानव श्रम के प्रति उनकी धारणा तथा सभी मानवों की समानता संबंधी विश्वास का भी विशेष प्रभाव पड़ा।

गांधीजी, सदैव उस अर्थ पद्धति के पक्ष में थे, जो मानवों को अपनी अल्पतम भौतिक आवश्यकताएं पूरी करने के लिए साधन जुटाती थी। वे इस सिद्धांत को नहीं मानते थे कि संयत्रों, उद्योगवाद और शहरीकरण के फलस्वरूप भोगविलास की इच्छाओं की पूर्ति होनी चाहिए। उनका मानना था कि मन अशांत पक्षी है, जितना अधिक उसे प्राप्त होता है, उतना ही अधिक वह और चाहता है। बल्कि, उससे भी अधिक चाहता है और तब भी असंतुष्ट बना रहा है।

इस प्रकार इच्छाओं को बढ़ाते चलना और उनकी पूर्ति में लगे रहना एक प्रकार का भ्रम है, एक प्रकार का दुष्चक है। सच्चे अर्थ में सभ्यता का सार इच्छाओं के अभिवर्धन में नहीं, बल्कि जानबूझकर उन्हे घटाने में है।

“कर्म ही पूजा है” इस वाक्य के साथ गांधी जी ने “रोटी के लिए श्रम” सिद्धांत दिया। अर्थात गांधी का मत था कि ईश्वर ने मनुष्य को अपने भोजन की प्राप्ति के लिए काम करने के लिए उत्पन्न किया और जो लोग बिना काम किए खाते हैं वे चोर हैं। इस तर्क से उन्होंने रोटी के लिए श्रम सिद्धांत (ब्रेड लेवर थ्योरी) की बात रखी।

“जीवन के लिए काम करो”, यह नियम तब पहली बार मेरे ध्यान में आया जब मैंने टालस्टाय का ब्रेड लेबर पर लेख पढ़ा……। मनुष्य अपने हाथ से मेहनत कर अपनी रोटी कमाए, यह विचार सबसे पहले रूसी लेखक टीएम वांडरेफ ने प्रकट किया था। मेरे विचार में यही बात गीता के तीसरे अध्याय में है कि जो व्यक्ति बिना बलि (यहां बलि का अभिप्राय श्रम से है) दिए खाता है, वह चोरी का माल खाता है। जो अहिंसावादी हैं, सत्य के आराधक हैं, ब्रह्मचर्य का स्वाभाविक रूप से पालन करते हैं, उनके लिए रोटी का श्रम सच्चा वरदान है।

संयंत्रों के प्रति गांधी जी का दृष्टिकोण यह था कि जहां वे व्यक्ति की सहायता करते हैं, वहां उन्हे वे स्वीकार करते हैं। जहां वे उसके व्यक्तित्व को दबा देते हैं, वहां नहीं। औद्योगीकरण के संबंध में उनके जो विचार थे, उनका आधार यही दृष्टिकोण था। संयंत्रों का अपना स्थान है। उनका अस्तित्व भी बना रहने को है, लेकिन उन्हें आवश्यक मानव-श्रम का स्थान नहीं ग्रहण करने देना चाहिए। मुझे संयंत्रों पर आपत्ति नहीं बल्कि संयंत्रों के प्रति होने वाली ललक से आपत्ति है।

ललक (इच्छा) उन मशीनों की, जो श्रम बचाती हैं। मैं धन का संचयन सभी के लिए चाहता हूं, कुछ व्यक्तियों के लिए नहीं। आज संयंत्र कुछ लोगों का ही भला कर रहे हैं और लाखों-लाख व्यक्तियों पर बोझ बन रहे हैं। मैं इसी वस्तु विधान के विरूद्ध हूं और इसी से पूरी शक्ति से लड़ रहा हूं। सामान्य व्यक्ति के नाते मैं इतना समझता हूं कि व्यक्ति बिना उद्योगों के नहीं जी सकता, इसलिए मैं औद्योगीकरण के खिलाफ नहीं हूँ।

गांधी जी पश्चिमी अंधानुकरण के पक्ष में नहीं थे, वे चाहते थे कि खुली आंखों से अपनी सभ्यता की अच्छाइयों को देखें। उन्होंने कहा, “मैं नहीं चाहता कि मेरे घर की चारों ओर दीवार खड़ी कर दी जाए और खिड़कियों को बंद कर दिया जाय। मैं चाहता हूं कि मेरे घर के चारों ओर सभी संस्कृतियों की हवाएं स्वतंत्रपूर्वक छूटें, परन्तु वे मेरे पैर उखाड़े, यह मुझे स्वीकार नहीं। मेरा स्वराज अपनी सभ्यता की विशिष्टताओं को अक्षुण्य रखेगा”… जो यूरोप के लिए सत्य है।

यह आवश्यक नहीं कि भारत के लिए भी सत्य हो… घर, देश की अपनी विशेषताएं और व्यक्तित्व होता है। भारत की भी अपनी विशेषताएं है। हम अपने देश की स्वभावगत विलक्षणताओं को ध्यान में रखकर कोई इलाज सुझा सकते हैं।

गांधी जी आर्थिक समता और समाजवाद की भी बात कहते हैं और धनी वर्गों द्वारा निर्धनों के शोषण को रोकना चाहते हैं। वे ऐसे तिलिस्म का सुझाव देते हैं, जिससे निर्बलों व निर्धनों के कल्याण के प्रति उनकी चिंता स्पष्ट रूप से व्यक्त होती है। सार्वभौमिक आर्थिक विधान ऐसा होना चाहिए कि किसी को भी खाने, कपड़े की तंगी महसूस न हो। सभी को अपनी आजीविका के लिए पर्याप्त कार्य मिले।

इस उद्देश्य की सिद्धि तभी होगी, जब आधारभूत वस्तुओं के उत्पादन पर जनता का अधिकार हो। ये वैसे ही सर्वसुलभ हो, जैसे पानी व वायु है। जो अद्यतन व्यक्ति व राष्ट्र के नैतिक कल्याण को हानि पहुंचाता है, वह अनैतिक है, पाप पूर्ण है। इस प्रकार जो अर्थतंत्र एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र का शोषण करने में प्रवृत्त करता है, वह भी अनैतिक है।

गांधी जी ट्रस्टीशिप का विचार रखते हैं कि तुम करोड़ों कमाना चाहते हो तो अवश्य कमाओ, पर स्मरण रहे कि तुम्हारा धन तुम्हारा नहीं है। यह जनता का है। तुम्हे अपनी न्याय संगत आवश्यकताओं के लिए जितना चाहिए, तुम ले लो और जो शेष है उसका उपयोग समाज के लिए करो।  धनी वर्ग को इस पर अमल करना चाहिए। कुछ करोड़पतियों को नष्ट कर गरीबों का शोषण बंद नहीं किया जा सकता। पर, गरीबों के अज्ञान को दूर कर उन्हें अपने शोषकों का सहयोग न करने की शिक्षा देकर ही ऐसा किया जा सकता है। जब श्रमिक ठीक से शिक्षित- संगठित होंगे तभी वे अपनी शक्ति पहचानेंगे। तब उनको बड़ी से बड़ी पूंजी भी नहीं दबा पाएगी।

गांधी जी यह भी कहते हैं “जब तक थोड़े से संपन्न और करोड़ों निर्धनों के बीच में खाई बनी रहेगी, तब तक शांति स्थापित नहीं हो सकती। इसके लिए वे सुझाव देते हैं कि धनी और प्रतिभा संपन्न लोग अपने धन और प्रतिभा का उपयोग अपने लिए न करें, बल्कि उसे समाज की भलाई के लिए न्यास समझें”।

“न्यासी के रूप में वे कुछ अंश, उचित कमीशन के तौर पर और समाज के प्रति किए गए उपचार के तौर पर रख सकते हैं। आने वाले समय में न्यासिता इस राष्ट्र की विधि बन जाएगी और उसका संचालन व नियमन राज्य अत्यन्त अल्प बल के प्रयोग से करेंगा।”

स्वदेशी या आत्मनिर्भरता के संबंध में गांधी मानते हैं कि स्वदेशी को स्वीकार किए बिना स्वराज्य अधूरा रहेगा। उनका विश्वास था कि स्वशासन और आत्मावलंबन में, राष्ट्रीय स्वशासन और राष्ट्रीय आत्मावलंबन में घनिष्ठ संबंध होता है। स्वदेशी हमारी वह भावना है, जो हमारी तत्कालिक आवश्यकताओं के उपभोग को नियंत्रित करती है।

इसमें दीर्घ कालिक आवश्यकताओं का विचार नहीं आता। मैं स्वदेशी को ऐसा धार्मिक सिद्धांत मानता हूं, जिसका पालन सभी को करना चाहिए। स्वदेशी पूर्ण रूप से देश प्रेम और उच्च किस्म की आध्यात्मिकता का प्रतीक है। इसमें यह निहित है कि जो देश हमारी जन्मभूमि हो, उसे अन्य देशों की अपेक्षा वरीयता दे। देश के भीतर जो हमारा पड़ोसी हो उन्हें भी दूर रहने वालो की अपेक्षा वरीयता दे।

स्वदेशी का सार तत्व है, शुद्ध हृदय से सेवा। स्वदेशी कभी अनुचित संकुचित या स्वार्थपूर्ण हितों को बढ़ावा नहीं देती। देश या मानवता के हितों की अपेक्षा ही करती है। यह इतना ही चाहती है कि हम पड़ोसियों के प्रति अपने वैध और युक्ति-युक्त कर्तव्यों का निर्वहन करें और उन्हें राष्ट्रीय व विश्व की सेवा के लिए अपनी कुर्बानी देने के लिए प्रेरित करें।

गांधी जी स्वदेशी को विश्व सेवा की प्रकाष्ठा कहते थे और यह निकटम व तत्कालिक को वरीयता देती थी। अपना प्रथम कर्तव्य समझकर अपने को पड़ोसियों की सेवा में लगा देनी चाहिए, क्योंकि वही हमारे सबसे अधिक नजदीक हैं, उन्हें ही हम अच्छी तरह से जानते भी है।

स्वधर्म में मरना अच्छा है और परधर्म भयावह है। गांधी जी गीता के इस उपदेश को स्वदेशी पर भी लागू करते थे। स्वदेशी स्वधर्म है और समीपस्थ वातावरण से संबंध है। सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में वे स्वदेशी संस्थाओं का उपयोग करना चाहते थे और उसका दोष भी दूर करना चाहते थे।

असहयोग, सविनय अवज्ञा, उपवास, धरना आदि जो उन्होंने अहिंसापूर्ण शस्त्र अपनाए, वे प्राचीन भारत में राजनीतिक और समाजिक विरोध प्रकट करने के उपायों के ही आधुनिक परिष्कृत रूप थे। सामाजिक क्षेत्र में उन्होंने वर्णाश्रम धर्म को माना और जातिप्रथा को नकार दिया। आर्थिक क्षेत्र में गांधी जी जो देश की आत्मनिर्भरता चाहते थे। वे गांव को भी आत्मनिर्भर देखना चाहते थे, उन्ही विदेशी वस्तुओं को आवश्यक मानते थे जो लोगो के विकास में सहायक हो।

स्वदेशी की व्याख्या में विदेशी वस्तुओं को छोड़कर सभी घरेलू उत्पादन आते थे, जिससे गृह उद्योगों को संरक्षण प्राप्त हो। वे संपूर्ण अंतरराष्ट्रीय व्यापार के विरूद्ध में नहीं थे, वे सीमित आयात के पक्ष में अवश्य थे, और उन्ही वस्तुओं का आयात करना चाहते थे, जो हमारे विकास में सहायक हो, जिन्हे भारत स्वयं निर्मित न कर सकता हो।

लेखकः डा. पंकज कुमार

आप ,भदोही जनपद में जिला सूचना अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। इतिहास और लेखन में गहरी रुचि रखते हैं गांधी के दर्शन और समाजवाद को आदर्श मानते हैं।

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