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पर्वाधिराज दशलक्षण महामहोत्सव पर विशेषः दशलक्षण वात्सल्य और आत्मशुद्धि का महापर्व

ब्रह्मचारिणी डॉ. कल्पना जैन. भारतीय संस्कृति में पर्वों का विशेष महत्व है, क्योंकि वे हमें मर्यादित आचरण करना सिखाते हैं। यह मर्यादा तो स्वतंत्रता देती है, किन्तु स्वच्छन्दता पर रोक लगाती है। यह मात्र स्वयं जीने का दर्शन नहीं, अपितु ‘जियो और जीने दो‘ का दर्शन है। यह दूसरों को नियंत्रित करने के बजाए स्वयं को नियन्त्रित करने का माध्यम है।  इसके सहारे हम वह सब पा सकते हैं, जिससे सुख मिलता है। शान्ति मिलती है। यश मिलता है। वास्तव में मानवीय जीवन को गरिमा इन पर्वों से ही मिलती है।

जैन धर्मानुयायी प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल पंचमी से भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी तक मनाया जाने वाला दशलक्षण पर्व ऐसा ही पर्व है, जिसे पर्वों का राजा कहा जाता है। यह हमें आत्मानुशासन सिखाता है। पर्वों के राजा कहे जाने वाले दसलक्षण महापर्व का इस साल 31 अगस्त से शंखनाद हो रहा है। दसलक्षण के दौरान दिगंबर परंपरा के अनुयायी विधि-विधान से व्रत रखते हैं। हर दिन का अपना विशेष महत्व होता है। सर्वप्रथम दिवस उत्तम क्षमा के रूप मंत मनाया जाता है तो अंतिम दिन उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म के रूप में। इन धर्म के दस दिनों में तीन तिथियों का खास महत्व है। 04 सितम्बर को  वर्धमान स्रोत विधान एवं पुष्पदंत मोक्ष कल्याणक, 05 सितम्बर को सुगन्ध दशमी (धूप सेवन), जबकि 09 सितम्बर को भगवान वासुपूज्य मोक्ष कल्याणक महोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाएगा।   

उत्तम क्षमाः उत्तम क्षमा का मानव जीवन में वही स्थान है, जो एक जीव के लिए आत्मा का। जिस प्रकार बिना आत्मा के मानव देह का कोई मूल्य नहीं, उसी प्रकार क्षमा के बिना आत्मा का भी कोई मूल्य नहीं है। क्षमा आत्मा का स्वभाव है, जो हर क्षण जीव के साथ है। धर्म यह कहता है, उत्तम क्षमा को अपना लो ताकि ना किसी को मारना पड़े और ना ही स्वयं असमय मरण को प्राप्त करना पड़े। क्षमा भाव ही मानव जीवन की शोभा है।

उत्तम मार्दव धर्मः मृदोर्भावः मार्दवम् अर्थात् जहाँ मृदुता का भाव है, वहाँ मार्दव धर्म होता हैं। हमारी विचार एवं कार्यप्रक्रिया तीन तरह से होती है- 1. मन से 2. वचन से 3. शरीर से। अतः मन, वचन एवं काय (शरीर) में किसी प्रकार की वक्रता न होना मार्दव है। मान कषाय के कारण आत्मा में कठोरता आ जाती है। जिस प्रकार कठोर भूमि पर पड़ा बीज भी नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार कठोर परिणामी आत्मा का धर्म करना भी अप्रयोजनीय होता है।

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उत्तम आर्जव धर्मः ऋजोर्भावः आर्जवम् जहाँ ऋजुता का भाव होता है, वहाँ आर्जव धर्म होता है। ऋजुता का अर्थ है – सरलता और सरलता वहीं होती है, जहाँ कुटिलता का अभाव होता है। कुटिलता कठिनाई पैदा करती है। कठिनाई से कार्य असंभव जैसे प्रतीत होने लगते हैं और हमारी प्रतीति (विश्वास) अपने आप से भी डगमगाने लगती है। मनुष्य का आचरण जब तक छल-कपट युक्त होता है, तब तक वह धर्मविहीन माना जाता है। छल से किया गया धर्म विनाश का कारण बनता है। आर्जव धर्म मायाचार, छल-कपट से बचाता है।

उत्तम शौच धर्मः शुभेर्भावः शौचम् अर्थात् जहाँ शुचिता का भाव होता है वहाँ शौच धर्म होता है। ऐसा कौन मनुष्य होगा जो शुचिता को नहीं चाहता हो ? सुचिता का अर्थ है- पवित्रता। यह पवित्रता बिना निर्लोभता के नहीं आती। निर्लोभी बनने के लिए हमें साध्य और साधना को समझना चाहिए। हमारे लिए  जो आत्मा साध्य है, वह लोभ से रहित अर्थात शौच गुण को अपनाने पर ही प्राप्त हो सकती है।

उत्तम सत्य धर्मः सते हितं यत्कथ्यते तत्सत्यं अर्थात् जो हित के लिए कहा जाता है, वह सत्य है, सत्य वह जिसका अस्तित्व है। जीवन का आधार सत्य है, और जीवन का लक्ष्य भी सत्य है। परम सत्य आत्मा है, जो हमारे अन्दर विद्यमान है। असत्य वचनों को त्यागकर हित-मित प्रिय वचन कहना, उत्तम सत्य धर्म है।

उत्तम संयम धर्मः संयमनं संयमः अर्थात् जहाँ संयम अर्थात् स्वयं पर नियंत्रण का भाव होता है, वहाँ संयम होता है। मन, वचन और काय, यदि अनियंत्रित या असंयमित हो जाएं, तो स्वयं व अन्य के लिए भी कष्टदायी हो सकते हैं। अतः मानव जीवन में संयम अनिवार्य है। संयम धर्म के द्वारा साधक अनियंत्रित इन्द्रिय और मन पर नियंत्रण रखता है। उत्तम संयम धर्म मनुष्य को सामाजिक, नैतिक, धार्मिक एवं जिम्मेदार बनाता है।

उत्तम तप धर्मः संसार में बिना तप के कुछ नहीं मिलता और ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे तप‘ करने पर प्राप्त न किया जा सके। तप में दो अक्षर हैं, और इसके विपरीत पत में भी दो अक्षर हैं, किन्तु दोनों के अर्थ में बहुत अंतर है? एक उत्थान की ओर ले जाता है, और दूसरा पतन की ओर मानवीय सोच, शक्ति, पुरुषार्थ का परिणाम के उत्थान एवं सर्वसिद्धि के लिए तप धर्म का अनुसरण करना परम आवश्यक है।

उत्तम त्याग धर्मः आत्मा के राग-द्वेष आदि काषायिक भावों का अभाव होना ही वास्तविक त्याग धर्म है। साधना का सच्चा आनन्द राग में नहीं, अपितु त्याग में ही है। निःस्वार्थ भाव से दिया गया दान ही त्याग धर्म है।

उत्तम आकिंचन्य धर्मः मैं और मेरा कुछ भी नहीं है, एकमात्र मेरी आत्मा है; इस भाव का नाम है- आकिञ्चन्य धर्म। यह धर्म हमें बताता है कि संसार में जो भी मिला; छूटने के लिए मिला, जो भी ग्रहण किया उसे छोड़ना है, अर्थात् सांसारिक वस्तुओं के साथ ‘मै‘ और मेरेपन का संबंध भी विसर्जित कर देना और निज शुद्धात्मा ही एकमात्र मेरा है, ऐसी गहन आत्मनुभूति का नाम ही उत्तम आकिंचन्य धर्म है।

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उत्तम ब्रह्मचर्य धर्मः ब्रह्मणि चरणं ब्रह्मचर्यः अर्थात् आत्मा में विचरण करना, लीन होना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य धर्म से असंयम, अश्लीलता, अमर्यादा, जैसी घटनाओं पर अंकुश लग सकता है, तथा जनसंख्या वृद्धि का समाधान भी मिल सकता है। ब्रह्मचर्य धर्म सर्वधर्मों की सिद्धि का आधार है।

(लेखिका तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी में कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन की प्राचार्या हैं)

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