अवध

‘सिद्ध योगियों द्वारा पोषित नाथ परंपरा एक विलक्षण और क्रियात्मक साधना पद्धति’

हिंदुस्तानी एकेडमी में हिंदी दिवस पर ‘सामाजिक समरसता में नाथ पंथ का अवदान’ विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन

प्रयागराज (आलोक गुप्ता). हिंदी दिवस पर हिंदुस्तानी एकेडमी के तत्वावधान में ‘सामाजिक समरसता में नाथ पंथ का अवदान’ विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम का आगाज दीप प्रज्ज्वलन एवं सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण से हुआ। अतिथियों का स्वागत एकेडमी के सचिव देवेंद्र प्रताप सिंह ने किया। ‘हिन्दुस्तानी’ त्रैमासिक के बाबू श्यामसुंदर दास पर केंद्रित विशेषांक का विमोचन मंचासीन अतिथियों द्वारा किया गया।

विषय प्रवर्तन करते हुए डा. अरुण कुमार त्रिपाठी ने कहा, नाथ पंथ की परंपरा में महायोगी गुरु गोक्षखनाथ से प्रारंभ करके आज उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक सामाजिक समरसता के लिए लगातार प्रयासरत हैं। इसीलिए नाथ पंथ समरसता का पर्याय कहा जाता है। नाथ पंथ ऊंच-नीच, छुआछूत और कुरीतियों के खिलाफ समाज को जगाने में अग्रणी भूमिका निभाता रहा है।

महंत दिग्विजय नाथ ने शिक्षा के क्षेत्र में समरसता लाने के लिए महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद की स्थापना की और इसमें दलित, शोषितों और वंचितों को प्राथमिकता दी। महंत अवैद्यनाथ का मीनाक्षी पुरम में पुनर्वास और देश भर के धर्माचार्यों के साथ वाराणसी में डोमराज के घर भोजन करने की घटना सामाजिक समरसता की पराकाष्ठा है।

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मुख्य अतिथि प्रो. रविशंकर सिंह (विशेष कार्य अधिकारी, महायोगी गुरु गोरक्षनाथ शोधपीठ, गोरखपुर विश्वविद्यालय) ने कहा कि नाथ पंथ का सामाजिक समरसता में सबसे बड़ा योगदान गोरक्षनाथ का रहा है। उन्होंने योग दर्शन को सभी के लिए सुलभ बनाया। नाथ पंथ की आध्यात्मिक धारणा है कि जो ब्रह्मांड में है, वही पिंड में है। इसलिए पिंड के शोधन की आवश्यकता है। अर्थात मनुष्य को अपने शरीर का शोधन करना चाहिए। नाथ पंथ जाति, धर्म, लिंग, संप्रदाय के आधार पर किसी तरह का कोई विभेद नहीं करता है।

एमडीएस विश्वविद्यालय अजमेर, राजस्थान से आए डा. सूरजमल राव ने कहा कि राजस्थान में नाथ संप्रदाय का विशेष प्रभाव रहा है। नाथ संप्रदाय की व्यापक पहुंच आम साधारण व्यक्ति से लेकर राज परिवार तक समान रूप से दृष्टिगत होती हैं। नाथ संप्रदाय के सांस्कृतिक जीवन मूल्य राजस्थान के लोक जीवन एवं सभ्य समाज में स्पष्ट रूप से देखे जाते हैं। राजस्थान की भौगोलिक स्थिति कुछ इस प्रकार है कि मध्यकालीन आक्रांताओं ने इसी रास्ते भारत पर आक्रमण किया। सूफी दर्शन और इस्लाम दर्शन सभी सर्वप्रथम इसी प्रदेश में व्यापकता से फैले।

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कहा, नाथ संप्रदाय एवं सखी संप्रदाय के साथ औलिया फकीरों को साथ-साथ देखा गया। सामाजिक सद्भाव की दृष्टि से राजस्थान के पांच पीरों ने मध्यकाल से लेकर आज तक हिंदू, मुस्लिम समन्वय संस्कृति का भाव विकसित किया। यहां के आध्यात्मिक लोक जीवन में नाथों की औलियों के साथ सूफियों के दर्शन को आज भी गाया जाता है। यहां के नाथ मठ भारतीय संस्कृति के पोषक एवं संरक्षक रहे हैं।

लखनऊ से आए वैज्ञानिक अधिकारी डा. मधुसूदन उपाध्याय ने कहा कि भारतवर्ष आध्यात्मिक प्रयोगशाला भी है, संस्कृतियों का अंगना-पालना भी है। यहां उच्चाभिलाषी आत्माओं के मुक्ति के लिए समय-समय पर ईश्वर प्रेरित साधना पद्धतियों का विकास होता रहा है।

आदिनाथ भगवान शिव द्वारा प्रवर्तित और गोरख और मछेंदर जैसे सिद्ध योगियों द्वारा पोषित नाथ परंपरा ऐसी एक विलक्षण और क्रियात्मक साधना पद्धति है, जो शैव शाक्त और योग सबको अंतर्गुम्फित कर मानव मन और तन को बड़ी अर्हताओं के लिए तैयार करती है। यह हम सबका सौभाग्य है कि हम आज कौशिकी अमावस्या के दिन इस पवित्र परंपरा को याद कर रहे हैं।

लोक पहल के संयोजक डा. विजय कुमार सिंह ने कहा कि हमें हिंदी भाषा के प्रति स्वाभिमान होना चाहिए। हमें स्वयं इसे अपनाना चाहिए। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को सामाजिक समरसता का प्रतीक करार देते हुए कहा, गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर में मकर संक्रांति पर सभी धर्म-संप्रदाय के द्वारा चढ़ाई जाने वाली खिचड़ी और उसका भंडारे में सभी जाति, धर्म, संप्रदाय के लोगों द्वारा एक साथ ग्रहण करना सामाजिक समरसता का सबसे बड़ा उदाहरण है।

अंत में धन्यवाद ज्ञापन एकेडमी के प्रशासनिक अधिकारी गोपाल पांडेय ने किया। कार्यक्रम में डा. अमिताभ त्रिपाठी, डा. उमा शर्मा, डा. शांति चौधरी, डा. पीयूष मिश्र ‘पीयूष’, गलाम सरवर, व्यास मुनि सहित शोधार्थी एवं शहर के गणमान्य लोग उपस्थित रहे।

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