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चिकित्सा विज्ञान के अग्रदूतः प्रथम चिकित्सक शेषावतार महर्षि चरक

अथर्ववेद के उपवेद और पंचमवेद आयुर्वेद के आदि चिकित्सक महर्षि चरक को भगवान शेषनाग का अवतार माना जाता है। उनका जन्म ईसा से 200 वर्ष पूर्व कश्मीर में पुंछ के पास कपिष्ठल नामक गांव में हुआ था। श्वेत वाराह पुराण के अनुसार उनका जन्मदिन श्रावण शुक्लपक्ष नागपंचमी (इस बार नौ अगस्त 2024) को मनाया जाता है।

उज्जैन स्थित महाकाल मंदिर में भगवान शेषनाग के कपाट भी आज ही के दिन खोले जाते हैं। उन्होंने महाभारत काल के पश्चात खंडित हो चुके कायचिकित्सा (मेडिसिन) के महान ग्रंथ अग्निवेश-तंत्र का प्रतिसंस्कार (पुनर्लेखन) कर चरक-संहिता रूपी कालजयी रचना प्रदान की।

बौद्ध धर्म के नास्तिक दर्शन काल में अहिंसा के सिद्धांत के कारण राजव्यवस्था द्वारा वैदिक और शल्य क्रियाओं का निषेध कर दिया गया था। दूसरी तरफ बौद्ध धर्म के “स्वभावों परमवाद” के सिद्धांत की आड़ में (यानी शरीर तो स्वभाव से ही बनता बिगड़ता है, इसलिए चिकित्सा की क्या आवश्यकता है ऐसा कहकर) वैद्यों के चिकित्सा कार्यों का विरोध किया जाता था।

कहा जाता है कि बौद्ध सम्राट बिम्विसार को भी बवासीर की तकलीफ़ हुई थी, लेकिन अहिंसा के सिद्धांत के चलते उन्होंने शल्य चिकित्सा को अंगीकार नहीं किया। जिस पर आचार्य जीवक ने एक लेप बनाकर अर्श को ठीक किया था। सम्राट अशोक के बाद चिकित्सा कार्यों पर शासन द्वारा ऐसा प्रतिबंध करीब 50 वर्ष तक रहा, जिसे भारत के मेडिकल-इमरजेंसी का काल कहा जा सकता है।

मान्यता है कि ऐसे कालखंड में अनंत भगवान-शेष छद्म रूप में धरती पर विचरण करने आए। रोगों से पीड़ित मानवता को देखकर करुणावश उनका हृदय द्रवीभूत हो गया और उन्होंने वेद-वेदांग नामक ब्राह्मण के घर जन्म लिया।

ऐसे समय में रोगों से पीड़ित मानवता की सेवा के लिए उन्होंने भारत भर में घूमते हुए चिकित्सा का कार्य और उसका प्रचार किया। इसी कारण “चरकात् चरक:” नित्यप्रति घूमने के कारण उनका नाम चरक पड़ा। उन्होंने “आर्ता: पुत्रवत आचारेत्” यानी रोगी से पुत्र के समान व्यवहार करने सहित अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन कर चिकित्सक समाज के लिए एक मिसाल कायम की।

आचार्य चरक ने आज से 2150 वर्ष पूर्व चरक संहिता का लेखन किया था। चरक संहिता मूल रूप से अग्निवेश तंत्र का ही परिष्कृत ग्रंथ है। पुनर्वसु आत्रेय द्वारा उपदिष्ट सूत्रों को, महर्षि अग्निवेश ने अग्निवेश तंत्र में निबंध किया था। काल क्रम से वह ग्रंथ लुप्त हुआ और आयुर्वेद चिकित्सा के प्रति भी समाज में उपेक्षा हुई। जिसके कारण मानवता और सारा विश्व रोगों से ग्रस्त हुआ।

आचार्य चरक ने ऐसे समय में जन्म लेकर और पूरे जीवनभर परिभ्रमण करते हुए चंक्रमण करते हुए, औषधियों के माध्यम से रोगों की चिकित्सा की और इन चिकित्सा के प्रयोगों को उन्होंने चरक संहिता के ग्रंथ में स्थान दिया। चरक सूत्र स्थान के प्रारंभ में छह पदार्थों के महत्व को प्रतिपादित किया।

सामान्य, विशेष, समवाय, द्रव्य, गुण एवं कर्म के महत्व को प्रतिपादित किया। दिनचर्या का व्याख्यान विस्तार से किया। ऋतु अनुसार हमें क्या भोजन करना चाहिए, कैसे भोजन करना चाहिए, किन दोषों का प्रकोप है कैसे समान है कौन सी व्याधि किस ऋतु में हो सकती है, इन सब बातों को उन्होंने बताया। वेगों के धारण करने से क्या नुकसान होता है, क्या व्याधियों होती है, सिद्धांत प्रतिपादित महर्षि चरक ने किया।

ऐसे विषय जो वैद्य के लिए अनिवार्य हैं, ऐसे गुण ऐसे कर्म जो वैद्य को करनी चाहिए, गुण जो धारण करने चाहिए, उन सभी गुणों को आचार्य चरक ने बताया। पंचकर्म चिकित्सा पद्धति जो रोगों को मूल से समाप्त करने वाली है, उसका सिद्धांत प्रतिपादन स्थापित किया जो लुप्त हो चुका था। सर्वश्रेष्ठ औषधियों की गणना, स्रोत के बारे में विस्तार से वर्णन, शरीर रचना के सिद्धांतों का प्रतिपादन कर मानव जाति के लिए, चिकित्सा शास्त्र के लिए बड़ा अवदान है।

बहुत सी ऐसी गंभीर व्याधियां थीं, जिसमें उन्होंने व्याधियों को दूर करने के लिए औषधियों का वर्णन किया। महर्षि चरक ने 2000 वर्ष पूर्व जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया, उन सिद्धांतों के आधार पर आज भी चिकित्सा की जाती है। अभी दो वर्ष पूर्व पूरे विश्व में कोरोना नमक व्याधि का आतंक हुआ था।

जिसमें बड़ी संख्या में लोगों की जान गई थी। कोरोना व्याधि की चिकित्सा आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पास भी नहीं है। परंतु, महर्षि चरक के सिद्धांतों के अनुसार कोरोना नामक व्याधि में वात,पित्त और कफ इन तीनों दोषों का सन्निपात होने के कारण से संप्राप्ति होती है। अतः यदि इन दोषों की समता स्थापित की जाए, तो यह रोग दूर हो सकता है।

इस सिद्धांत पर कार्य करते हुए आयुर्वेद चिकित्सा संस्थाओं ने कोरोना के रोगियों की चिकित्सा की और उसमें सफलता प्राप्त की। इसी प्रकार विभिन्न प्रकार की संक्रामक व्याधियों स्वाइन फ्लू, टाइफाइड, मलेरिया, चिकनगुनिया, जीका वायरस, डेंगू, चांदीपुरा वायरस इत्यादि का महर्षि चरक के त्रिदोष के सिद्धांत के आधार पर चिकित्सा करने से इन समस्त आधुनिक समय में प्राप्त रोगों की चिकित्सा सरलता से होती है।

इससे यह साबित होता है कि महर्षि चरक के चिकित्सा सिद्धांत और त्रिदोषवाद का सिद्धांत ही सार्वत्रिक, सर्वकालिक सत्य सिद्धांत है। ये सिद्धांत वैज्ञानिक है और स्वीकार करने योग्य है।

ऐसे महापुरुष जिन्होंने हजारों वर्ष पूर्व इस प्रकार के वैज्ञानिक चिकित्सा सिद्धांतों की प्रस्तुति देकर मानवता को और विश्व को हमेशा हमेशा के लिए रोगों से मुक्त होने का एक सूत्र दिया, उनका स्मरण करना हमारा कर्तव्य है।

महर्षि चरक ने ही रसायन प्रकरण में च्यवनप्राश का उल्लेख किया है। च्यवनप्राश एक ऐसा रसायन है, जिसका सेवन करने से व्यक्ति को जरा नामक व्याधि नहीं होती है। बुढ़ापा नहीं आता है और व्यक्ति की समस्त धातुएं श्रेष्ठ निर्मित होती है जिसके कारण व्यक्ति में ऊर्जा और उत्साह का स्तर उच्च बना रहता है।

च्यवनप्राश के उल्लेख के समय ही महर्षि चरक ने उसके लाभ बताते हुए कहा कि च्यवनप्राश का उपयोग श्वास और केश रोग में विशेष रूप से करना चाहिए। इस सिद्धांत के आधार पर समझ में आता है कि चवनप्राश श्वसन व तंत्र के रोगों पर अच्छी तरह से कार्य करता है। कोरोना में भी कोरोना वायरस फेफड़ों में जाकर फेफड़ों की कोशिकाओं को नष्ट करता है और श्वसन संस्थान को अपना स्थान बनाता है। अतः कोरोना के रोगियों को जब च्यवनप्राश दिया गया, तो उनको इससे अत्याधिक लाभ हुआ।

आचार्य चरक के द्वारा दिया गया यह रसायन भी मानवता के लिए अत्यंत कल्याणकारी रहा। इसके अतिरिक्त वर्तमान में प्राप्त होने वाली बहुत सी ऐसी बीमारियां हैं, जिनका चिकित्सा आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के द्वारा संभव नहीं है। जितने भी प्रकार के कुष्ठ अर्थात त्वक रोग हैं, उन सभी की चिकित्सा महर्षि चरक ने दी है। जिसको दोष अनुसार चिकित्सा करने से निश्चित रूप से वैद्य को यश और रोगी को लाभ प्राप्त होता है।

इसी प्रकार ग्रहणी दुष्टि भी एक रोग है। आधुनिक चिकित्सक इसको बाउल सिंड्रोम कहते हैं। ग्रहणी दुष्टि की चिकित्सा के बारे में भी महर्षि चरक ने विस्तार से वर्णन किया है। प्रमेह नमक व्याधि इस समय संसार के लिए एक चुनौती बनी हुई है। मधुमेह एक प्रमेह का भेद है।

आचार्य चरक ने प्रमेह के भी 20 भेदों का वर्णन किया और बताया कि कफ कारक और कफ को बढ़ाने वाली जीवनशैली से ही प्रमेह रोग होते हैं। प्रमेह की चिकित्सा भी आचार्य ने विस्तार से बताई और कहा कि शरीर को श्रम साध्य बनाने से और अपने जीवनचर्या को सुधारने से प्रमेह की चिकित्सा होती है।

आचार्य चरक ने ही आंवला और हल्दी, त्रिफला आदि रसायनों के माध्यम से प्रमेह की चिकित्सा के सूत्र दिए, जो वर्तमान में भी अत्यंत प्रासंगिक है। आधुनिक चिकित्सा में जहां बहुत सारे साइड इफेक्ट्स होते हैं, वहीं आयुर्वेद चिकित्सा प्रमेही की चिकित्सा तो करती ही है, इसके अतिरिक्त शरीर में होने वाले ह्रास को भी रोकते हैं और शरीर को अधिक ऊर्जावान बनाती है।

आचार्य चरक ने अन्य रोगों यथा हृदय रोग, श्वास रोग, वात व्याधि, कास रोग, शोथ रोग(सूजन) आदि के चिकित्सा सिद्धांतों का वर्णन किया है।

चरक संहिता के शिष्योपनयनीय अध्याय से संकलित चरक-शपथ आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के हिप्पोक्रेटिस-ऑथ से अधिक समीचीन प्रतीत होती है। आजकल देशभर के मेडिकल और आयुर्वेद कॉलेजों में प्रवेश लेने वाले छात्रों को चरक शपथ की प्रतिज्ञा करवाई जाती है।

हिमाचल प्रदेश के एक गांव का नाम आज भी चरेख-डांडा है। मान्यता है कि इसी पहाड़ी पर महर्षि चरक ने तपस्या की थी। इस स्थान पर विश्व आयुर्वेद परिषद के प्रयासों से महर्षि चरक की मूर्ति स्थापना की गई है। जहां आसपास के आयुर्वेद महाविद्यालय के छात्र चरक जयंती के अवसर पर चरक-यात्रा आदि का आयोजन करते हैं।

हमें चिकित्सा के इन महान वैज्ञानिक का जीवन स्मरण कर इस आर्थिक भौतिकवादी युग में नैतिक सुचिता (मेडिकल एथिक्स) को अपनाना चाहिए और इस अवसर पर चिकित्सा शिविर, औषधीय पौधारोपण, स्वास्थ्य प्रबोधन आदि का आयोजन कर महर्षि चरक को उनके अवदान के लिए श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए।

इन्दर सिंह परमार

कैबिनेट मंत्री

उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा एवं आयुष विभाग

मध्य प्रदेश शासन

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