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पढ़ें लाक्षागृह की वह कहानी, जिसकी 100 बीघा भूमि पर नजर गड़ाए बैठा था विपक्ष

साल 1970 में मेरठ में मुकीम खान ने दायर किया था मुकदमा, 53 साल की अदालती लड़ाई के बाद हिंदू पक्ष को मिला लाक्षागृह

The live ink desk. उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में स्थित महाभारत कालीन लाक्षागृह कोलेकर चली आ रही कानूनी लड़ाई हिंदू पक्ष ने जीतली है। 1970 में इस पर कब्जे को लेकर मुस्लिम पक्ष ने अदालत की शऱण ली थी। 53 वर्ष अदालत में चले इस मामले में अब फैसला आया है। पांच फरवरी, 2024 सिविल जज प्रथम (जूनियर डिवीजन) शिवम द्विवेदी ने पना फैसला सुनाया।
यह मुकदमा 1970 में मेरठ की कोर्ट में दायर हुआ था। 1970 में बागपत, बरनावा के रहनेवाले मुकीम खान ने वक्फ बोर्ड के पदाधिकारी की हैसियत से मेरठ की कोर्ट में याचिका दायर की थी। उन्होंने लाक्षागृह को बकरुद्दीन की मजार और कब्रिस्तान होने का दावा किया था। इस प्रकरण में लाक्षागृह गुरुकुल के संस्थापक ब्रह्मचारी कृष्णदत्त महराज को प्रतिवादी बनाया गया था।

मेरठ की अदालत में यह मामला 27 साल चला। इसके पश्चात 1997 में यह मुकदमा मेरठ से बागपत की अदालत में ट्रांसफर हो गया। सोमवार को आए फैसला में अदालत ने हिंदू पक्ष को यहां पर बने लाक्षागृह और मजार के मामले में मालिकाना हक दिया है। इस फैसले के आने के बाद मुस्लिम पक्ष के अधिवक्ता ने ऊपर की अदालत में अपील करने की बात कही है।
मुस्लिम पक्ष के मुताबिक एक टीले पर शेख बदरुद्दीन की मजार है और पूरा इलाका कब्रिस्तान की भूमि है। गौरतलब है कि इस मामले में हिंदू पक्ष की तरफ से साक्ष्य रखने वाले और मुस्लिम पक्षकी तरफ से यह मामला अदालत तक ले जाने वाले मुकीम खान और कृष्णदत्त महराज का अब निधन होचुका है।

मौजूदा समय में अलग-अलग लोग इसकी पैरवी कर रहे थे। हिंदू पक्ष के अधिवक्ता रणवीर सिंह के मुताबिक मुस्लिम पक्ष लाक्षागृह की भूमि को मजार की भूमि बताकर कब्जा करना चाह रहा है। अदालत को सारे सुबूत और साक्ष्य सौंपे गए। लाक्षागृह के टीले पर संस्कृत विद्यालय और महाभारतकालीन सुरंग भी मौजूद है। इस मामले में सुनवाई के दौरान हिंदू पक्ष की तरफ से दस से अधिक लोगों की गवाही हुई।

लाक्षागृह और मजार (कब्रिस्तान सहित) जिस भूखंड पर स्थित है, उसका कुल एरिया 108 बीघा केआसपास है। अदालत के फैसले के पश्चात फिलहाल अब यह हिंदू पक्ष की संपत्ति होगई है। यहां पर पांडवकालीं सुरंग है। इतिहासकारों के मुताबिक इस जमीन पर जितनी बार खुदाई की गई है, हजारों वर्ष पुरानी हिंदू सभ्यता के साक्ष्य मिले हैं।

1952 में शुरू हुई थी लाक्षागृह की खुदाई
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत जिले की बरनावा (वारणावत) में स्थित लाक्षागृह टीले की खुदाई 1952 एएसआई की देखरेख में शुरू ही थी। इस दौरान इसमें मिट्टी के दुलर्भ श्रेणी के अवशेष मिले थे। खुदाई में मिले बर्तनों की उम्र 4500 से ऊपर बताई गई है। इसी काल को महाभारत का काल माना जाता था। यह टीला लगभग 30 एकड़ में फैला है और इसकी ऊंचाई 100 फीट है। इसके नीचे एक गुफा है। साल 2018 में भी एएसआई ने यहां खुदाई की थी, जिसमें कंकाल व दूसरे अवशेष बरामद हुए थे। इसमें महल की दीवारें व बस्ती भी शामिल है। एएसआई की खुदाई में यहां मिले साक्ष्य हिंदू सभ्यता के ज्यादा करीब हैं।

राजा अहिबारन ने की थी पुनर्स्थापना
अब के बागपत जिले में बरनावा या वारणावत की पुनर्स्थापना जाट राजा अहिरबारन तोमर ने की थी। राजा अहिबरन तोमर ने इस क्षेत्र पर 9वीं शताब्दी में राज किया। उसी समय इस क्षेत्र का विकास जाट राजाओं ने अपने पूर्वजों की विरसात के रूप में किया था। यह गांव आज भी पांडुवंशी तोमर जाटों के गांव के नाम से अपनी पहचान रखता है।
बरनावा गांव में महाभारत कालीन लाक्षागृह है। महाभारत कालीन लाक्षागृह इमारत के अवशेष यहां एक टीले पर दिखाई देते हैं। यह टीला 100 फीट ऊंचा है और 30 एकड़ में फैला है।

गुप्त सुरंग से बाहर निकल गए पांडव
लाक्षागृह के बारे में इतिहास कहता है कि महाभारत काल में में कौरव भाइयों ने पांडवों को इस महल में ठहराया था और फिर जलाकर मारने की योजना बनाई थी। कौरव अपने मकसद में कामयाब हो पाते, इससे पहले ही पांडवों को इसकी जानकारी होगई और वह गुप्त सुरंग के रास्ते यहां से निकलने में कामयाब रहे। ये सुरंग आज भी निकलती है, जो हिंडन नदी के किनारे पर खुलती है। इतिहासकारों के अनुसार पांडव इसी सुरंग के रास्ते आग की लपटों में घिरे महल से सुरक्षित बाहर निकल गए थे।

युद्ध टालने के लिए मांगा था पांच गांव
महाभारत में एक किस्सा यह भी है कि युद्ध को टालने के लिए पांडवों ने कौरवों से पांच गांव मांगे थे। यह गांव पानीपत, सोनीपत, बागपत, तिलपत, वरुपत (बरनावा) के नाम से जाने जाते हैं। जब श्रीकृष्ण संधि का प्रस्ताव लेकर दुर्योधन के पास गए तो दुर्योधन ने श्रीकृष्ण का यह कहकर अपमान कर दिया था कि “युद्ध के बिना सुई की नोक के बराबर भी जमीन नहीं मिलेगी।” इस अपमान की वजह से श्रीकृष्ण कौरवों का आतिथ्य सत्कार छोड़कर महामुनि विदुर के आश्रम में चले गए।
महामुनि विदुर का आश्रम आज के समय में गंगा के उस पार बिजनौर जिले में पड़ता है। जहां पर विदुर ने श्रीकृष्ण को बथुवा का साग खिलाया था। ऐसी मान्यता है कि आज भी इस क्षेत्र में बथुवा बहुतायत में उगता है।

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