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Pasmanda Muslims: तुष्टिकरण नहीं तृप्तिकरण के रास्ते पसमांदा का उत्थान संभव

डा. अंबेडकर के बाद से विरले ही दलित लेखकों में देखा गया, जिन्होंने जाति के सवाल को भारतीय समाज के सभी धार्मिक तबकों से जोड़कर देखा हो। बाबा साहब ने ‘जाति का विनाश’ और ‘पाकिस्तान-भारत विभाजन’ में साफ शब्दों में कहा है कि यह पूरे भारतीय समाज की समस्या है, न कि सिर्फ हिंदुओं की।

अगर, दलित लेखक अपने व्यवहार एवं लेखन में इस चुनौती से नहीं लड़ता है तो जाहिर सी बात है कि भारतीय समाज के सभी धर्मों के दलितों के साथ नाइंसाफी होती रहेगी। पसमांदा (Pasmanda Muslims) से आशय पिछड़े या दबे-कुचले मुस्लिमों से है, जिसकी आबादी 80-85 प्रतिशत है, लेकिन मुस्लिम नेताओं ने अल्पसंख्यकों के नाम पर जो विमर्श चलाया, वह वास्तव में उच्च वर्गीय मुस्लिमों यानी अशराफ मुस्लिमों का विमर्श है।

मुस्लिम (Muslim) समाज अशराफ, अजलाफ और अरजाल श्रेणियों में विभक्त है। शेख, सैयद (सय्यद)और पठान अशराफ कहे जात हैं। अशराफ का अर्थ है कुनील या उच्च, जो अफगान-अरब मूल के और उच्च हिंदुओं से धर्मांतरित मुसलमान कहे जाते हैं। अजलाफ पेशेवर जातियों से धर्मांतरित मुसलमानों का वर्ग है, जो नीच, कमीना और बदजात कहेजाते हैं। एक तीसरा वर्ग कुछ स्थानों पर सबसे नीच मुसलमानों का है।

कुलीन मुसलमान अपने से निचली जाति वालों से संबंध नहीं रखते। यहां तक कि उनके लिए मस्जिद और सार्वजनिक कब्रिस्तान का उपयोग भी निषिद्ध है।  दलित मुसलमानों के जनाजे का नमाज पढ़ने से भी मौलवी इंकार कर देते हैं। भारत और पाकिस्तान, दोनों ही देशों में जातिवाद मुस्लिम समाज का यथार्थ है। यह सच है कि इस्लाम में जातिवाद नहीं है।

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कुरआन के अनुसार ऊंचा या बड़ा वह है, जिसमें अल्लाह का खौफ सबसे ज्यादा है। यह भी सच हो सकता है कि दुनिया के दीगर मुल्कों में जहां-जहां इस्लाम गया, उसने बेहतर समाज का निर्माण किया हो, किंतु भारत का सच यह है कि यहां इस्लाम एक बेहतर मुस्लिम समाज का निर्माण नहीं कर सका। मुस्लिम समाज का जातिवाद हिंदी समाज से भी ज्यादा भयानक है।

हिंदू समाज में तो दलितों के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन भी आया है और बहुत से प्रगतिशील हिंदुओं का सहयोग भी दलितोत्थान के क्षेत्र में मिल रहा है, लेकिन मुसलमानों का दुर्भाग्य यह है कि उनके उत्थान के प्रश्न पर कुलीन मुसलमानों में न तो पहले सोच पैदा हुई और न ही अब हो रही है।

पसमांदा (Pasmanda) विमर्श के अनुसार, सेक्युलर देश में ‘धार्मिक अल्पसंख्यक’ का कोई औचित्य नहीं, क्योंकि राज्य का तो कोई धर्म ही नहीं। फिर भारत में मुस्लिम जनसंख्या कई मुस्लिम देशों से भी ज्यादा है, तो मुस्लिम यहां अल्पसंख्यक कैसे हो सकते हैं? अशराफ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का सरकारों के विरुद्ध दबाव समूह के रूप में दुरुपयोग करते हैं, जबकि वे धोबी, नट, बक्सू, हलालखोर, नालबंद, पमरिया, भाट, कसाई आदि पसमांदा मुस्लिमों को प्रतिनिधित्व नहीं देते।

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मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय के लिए ‘अशराफ’ (कुलीन वर्ग) कोई आवाज नहीं उठाते, लेकिन हिंदू समाज में सामाजिक न्याय के लिए बहुत फिक्रमंद रहते हैं। पसमांदा आंदोलन राष्ट्रवादी सोच पर आधारित पिछड़े और दलित मुस्लिमों का आंदोलन है। पसमांदा की रगों में हिंदू समाज और भारत का खून दौड़ता है। त्रासदी यह कि उन्ही की उपेक्षा कर उनके नाम पर अशराफ मुस्लिम अपनी राजनीति चमकाते हैं।

पसमांदा आंदोलन (Pasmanda Movement) तथाकथित सेक्युलर पार्टियों के लिए एक बड़ी चुनौती है। यह न केवल मुस्लिम विमर्श बदल रहा है, बल्कि एक बड़े मुस्लिम वर्ग की सोच और मतदान व्यवहार में बदलाव लाकर भारतीय राजनीति में गंभीर परिवर्तन लाने की प्रबल संभावना भी रखता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने मुस्लिम समाज में शोषित, वंचित, पिछड़े दलित, जिसे पसमांदा समाज कहते हैं, के सामाजिक और राजनीतिक पिछड़ेपन को लेकर अपनी चिंता प्रकट की और उन्हे समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए कार्यकर्ताओं से आह्वान किया कि पसमांदा समाज को स्नेह यात्राओं के माध्यम से जोड़ा जाए और उनकी समस्या को समझा जाए।

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) देश के पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने पसमांदा विमर्श की शुरुआत की है, क्योंकि गरीब कल्याण का लक्ष्य तब तक पूरा नहीं होगा जब तक देश के सभी गरीबों का कल्याण न हो। पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति तक कल्याण का मार्ग तुष्टिकरण नहीं बल्कि तृप्तिकरण के रास्ते पर आगे बढ़ेगा।

पसमांदा (Pasmanda Muslims) का सशक्त उत्थान, सशक्त भारत के लिए जरूरी है। जब तक देस का कोई भी तबका वंचित रहेगा, तब तक एक मजबूत राष्ट्र का निर्माण संभव नहीं है। पसमांदा समुदाय को ये विश्वास होना चाहिए कि प्रधानमंत्री उनके जीवन के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध हैं, जिस प्रकार से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्रिपल तलाक का कानून बनाकर मुस्लिम बहनों को ट्रिपल तलाक के अजाब से निजात दिलाया हो या जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाकर वहां के दलित, आदिवासी, शोषित और वंचित मुसलमानों को मुख्य धारा में जोड़ा हो, इन सबका सबसे ज्यादा फायदा अगर किसी को हुआ है तो वह पसमांदा समाज को हुआ है।

Danish Eqbal (Writer, is the Director of Delhi based think tank, Indian Political, Analysis and Research Council and is a well-established Pasmanda Activist.)

 

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