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Plastic Waste: जीवन को संकट में डाल रहा खत्म न होने वाला कचरा, गंभीर चिंतन की जरूरत

आज हमारा जीवन प्लास्टिकमय हो गया है। सुबह उठने से रात को सोने तक न जाने हम कितनी मर्तबा प्लास्टिक की चीजों का इस्तेमाल करते हैं। बिना प्लास्टिक के आज जीवन की कल्पना मुश्किल है। यही प्लास्टिक इंसानों के साथ-साथ जीव-जंतुओं के जीवन को खतरे में डाल रहा है। तेजी से बढ़ता प्लास्टिक कल्चर पर्यावरणीय प्रदूषण का मुख्य कारण बन गया है। इसी को ध्यान में रखते हुए इस बार अंतरराष्ट्रीय विश्व पर्यावरण दिवस की थीम ‘बीट प्लास्टिक पॉल्यूशन’ तय की गई है। यानि प्लास्टिक प्रदूषण का समाधान ही इस वर्ष की सबसे प्रमुख व गंभीर चिंता और चुनौती है।

मालूम हो कि प्रतिवर्ष लगभग 400 मिलियन टन से भी ज्यादा प्लास्टिक का उत्पादन होता है। लगभग 200 मिलियन टन प्लास्टिक केवल एक बार ही इस्तेमाल के लिए डिजाइन की जाती है। केवल 10 फीसदी से भी कम प्लास्टिक रिसाइकल होती है।

ऐसे में हमारे सामने प्लास्टिक कचरे (Plastic Waste) का अंबार विकराल रूप लेने लगा है। दशकों पहले जिस प्लास्टिक का निर्माण इंसानी सहूलियत के लिए किया गया था, वह इतनी जल्दी पृथ्वी पर विनाश ला देगा, इसकी कल्पना किसी ने न की होगी। आज तेज भागती जीवनशैली और ‘यूज एंड थ्रो’ की प्रवृत्ति ने प्लास्टिक के उपयोग को दिन दूना रात चौगुना बढ़ा दिया है। ऑनलाइन रिटेल और फूड डिलीवरी ऐप की बढ़ती लोकप्रियता ने प्लास्टिक अपशिष्ट के खतरे की बची खुची सीमा भी लाँघ दी है।

भारत के सबसे बड़े ऑनलाइन फ़ूड डिलीवरी स्टार्टअप कथित रूप से प्रति माह लगभग 28 मिलियन ऑर्डर की डिलीवरी करते हैं। भारत का पैकेजिंग उद्योग प्लास्टिक का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। भले ही प्लास्टिक के साथ हमारा संबंध अल्पकालिक आवश्यकता या उपयोग पर केंद्रित हो, जैसे प्लास्टिक बैग और फूड रैपर पर। इनका जीवनकाल मात्र कुछ मिनटों से लेकर कुछ घंटों तक का होता है, लेकिन फिर भी वह सैकड़ों वर्षों तक पर्यावरण में बने रह सकते हैं और पर्यावरण के साथ-साथ जीव जंतुओं को क्षति पहुंचाते हैं।

प्लास्टिक धरती, नदियों, समुद्र तक अपना कहर बरपा रहा है। धरती के जीवों की तरह समुद्री जीव भी हर दिन प्लास्टिक निगलने को विवश हैं। इसके कारण प्रत्येक वर्ष तकरीबन एक लाख से अधिक जलीय जीवों की मृत्यु होती है। समुद्र के प्रति वर्ग मील में लगभग 46 हज़ार प्लास्टिक के टुकड़े पाए जाते हैं। शायद, आप इस सत्य से अनभिज्ञ हों कि दुनिया भर में हर मिनट में लगभग एक मिलियन प्लास्टिक की बोतलें बेची जाती हैं। इनका सिर्फ 14 प्रतिशत ही रिसाइकल हो पाती हैं, शेष समुद्र में फेंक दी जाती हैं, जिससे न केवल समुद्री जीवों को हानि पहुंचती है, बल्कि समुद्री भोजन का सेवन करने वाले लोगों पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

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प्लास्टिक बैग्स और स्ट्रॉ जैसी बड़ी वस्तुएं समुद्री जीवों के गले में फंसकर उनका जीवन समाप्त कर देती हैं और प्लास्टिक के छोटे टुकड़े (माइक्रोप्लास्टिक) समुद्री जीवों में जिगर, प्रजनन और जठरांत्र संबंधी क्षति उत्पन्न करते हैं। यह परिदृश्य  प्रत्यक्षतः पूरी ‘नीली अर्थव्यवस्था’ (Blue economy) को प्रभावित करती है।

आर्कटिक सागर के विषय में किए गए एक शोध के अनुसार, अगर यही स्थिति रहती है तो वर्ष 2050 तक समुद्र में मछलियों से अधिक प्लास्टिक कचरा नज़र आएगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2018 में एक शोध में पाया कि 90% बोतलबंद जल में माइक्रोप्लास्टिक उपस्थित थे। जो अप्रत्यक्ष रूप से हमारे शरीर के भीतर पहुंच जाते हैं। हम अपने कपड़ों के माध्यम से भी प्लास्टिक का अवशोषण करते हैं, जो 70% तक सिंथेटिक होते हैं और त्वचा के लिए सबसे नुकसानदेह होते हैं। खुली हवा में कचरा जलाने जैसे खराब कचरा प्रबंधन के कारण भी हम अपने भीतर श्वसन के माध्यम से प्लास्टिक ग्रहण करते हैं।

मनुष्यों में प्लास्टिक विषाक्तता से हार्मोन संबंधी व्यवधान और प्रतिकूल प्रजनन एवं जन्म परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं। चूंकि, प्लास्टिक नॉन-बायोडिग्रेडेबल होता है, इसलिए इसे अपघटित होने में कई साल लग जाते हैं। इसलिए इसे इको-फ्रेंडली नहीं माना जाता। प्लास्टिक हल्का, मज़बूत, टिकाऊ और मेटल की अपेक्षा सस्ता भी होता है। इन्हीं कारणों से इसका उपयोग उद्योगों और घरेलू सामानों में धड़ल्ले से होता आ रहा है।

हेल्थ केयर इंडस्ट्री से लेकर किचन के सामानों तक में प्लास्टिक भरा पड़ा है, किन्तु सबसे अधिक खतरा एक बार प्रयोग होने वाले प्लास्टिक से है। अतः इसका समाधान ही धरती और समुद्र को नया जीवन दे सकती है।

पूरा विश्व इस कचरे के समाधान के लिए कुछ न कुछ उपाय और प्रयास अपना रहा है। इसके बावजूद प्लास्टिक कचरे का ढेर बढ़ता चला जा रहा है। भारत सालाना लगभग 35 लाख टन प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पन्न कर रहा है। नगर निकाय के ठोस अपशिष्ट, प्लास्टिक अपशिष्ट से लेकर ऑटोमोबाइल कचरे तक देश में उत्पादित अपशिष्ट की मात्रा वर्ष 2025 तक तीन गुना हो जाने का अनुमान है। भारत सरकार ने प्लास्टिक कचरे से निपटने के लिए जून 2022 में विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर सिंगल यूज प्लास्टिक पर एक राष्ट्रव्यापी जागरूकता अभियान शुरू किया।

नागरिकों को अपने क्षेत्र में सिंगल यूज प्लास्टिक की बिक्री/उपयोग/विनिर्माण को नियंत्रित करने और प्लास्टिक के खतरे से निपटने के लिए सशक्त बनाने के लिये ‘सिंगल यूज प्लास्टिक शिकायत निवारण’ के लिए एक मोबाइल ऐप भी लांच किया गया, साथ ही प्लास्टिक  अपशिष्ट  प्रबंधन  संशोधन नियम 2022, इंडिया प्लास्टिक पैक्ट, प्रोजेक्ट रिप्लान, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) की प्रदूषण नियंत्रण समितियां, विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (EPR), एकल उपयोग प्लास्टिक के उन्मूलन और प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन पर राष्ट्रीय डैशबोर्ड  आदि प्रयास जारी है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी  गोलिटर पार्टनरशिप प्रोजेक्ट, एकल-उपयोग वाले प्लास्टिक पर यूरोपीय संघ का निर्देश, क्लोजिंग द लूप, द ग्लोबल टूरिज़्म प्लास्टिक इनिशिएटिव आदि के जरिए प्लास्टिक खतरे से निपटने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं, परन्तु अब तक इसका वास्तविक समाधान एक सपना है। जनजागरूकता और जनसहभागीदारी से यह काम संभव है।

बांदा के डीएम रहे डा. हीरा लाल ने अपनी किताब ‘डायनामिक डीएम’ के एक चैप्टर ‘प्लास्टिक मुक्त बांदा’ में इसकी कार्ययोजना का जिक्र किया है। आइए, चर्चा करते हैं उनके कार्य के कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर। सबसे पहले जनपद को प्लास्टिक मुक्त बनाने के लिए इन्होंने एक कार्ययोजना ‘झोला युक्त -प्लास्टिक मुक्त बांदा’ की शुरुआत की। इसके लिए अधिकारियों एवं व्यापारियों की बैठक के साथ जनजागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन कर प्लास्टिक का विकल्प झोला सुझाया और वितरित भी करवाया।

इसके बाद प्रतिबंधित प्लास्टिक इस्तेमाल करने वालों पर दंडात्मक कार्यवाही की सूचना प्रसारित कर भय का माहौल बनाया। व्यापारियों, शैक्षणिक संस्थानों एवं आम जनता को दैनिक जीवन में प्लास्टिक उपयोग न करने की शपथ दिलाई गई।

आईएएस डा. हीरालाल ने खुद आम जनों एवं व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से शपथ पत्र एकत्रित किया और उन्हें झोले बांटे गए। अभियान चलाकर प्लास्टिक की बोतल की जगह तांबा, स्टील और मिट्टी के बर्तन के प्रयोग को प्रेरित किया गया। सरकारी लोगों ने मिट्टी के बर्तन का प्रयोग शुरु किया। बैठकों में कुल्हड़ में ही चाय देने का आदेश पारित किया गया। मिट्टी के बर्तनों की प्रदर्शनी लगवाई गई। उपलब्धतता सुनिश्चित करने के लिए मिट्टी के बर्तन की अन्य दुकानें खुलवाई गईं। कुम्हारों को सम्मानित किया गया।

कुम्हारों का मनोबल बढ़ाने के लिए जिलाधिकारी ने खुद दीपावली के अवसर पर उनके घर जाकर मिठाइयां बांटी। दोना-पत्तल का प्रचलन बढ़ाने के लिए जिलाधिकारी ख़ुद बैठकों में इस पर भोजन करने लगे। इसके साथ ही इसे बेचने वालों को भी सम्मानित किया गया। परिणामस्वरूप व्यापारी वर्ग में बायोडिग्रेडबल थैलों का प्रचलन बढ़ा और प्लास्टिक पर काफ़ी हद तक अंकुश लग गया।

प्लास्टिक पर अंकुश लगाने के लिए ऐसे ही छोटे, वास्तविक और जीवंत प्रयास की जरुरत हर गांव-कस्बों को है। इसके अलावा प्लास्टिक रिसाइकल मशीन की जरुरत अब हर-गली मोहल्ले को है, इसके लिए इनोवेशन को बढ़ावा मिलना चाहिए। किसी भी समस्या से निपटने के लिए फंडिंग की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता है। इसके लिए सीएसआर फंड का कुछ प्रतिशत प्लास्टिक कचरे के समाधान और नवाचार पर अवश्य खर्च करने की बाध्यता सुनिश्चित की जानी चाहिए। इसके साथ ही हाल के शोधों- जिसमें बैक्टीरिया के इस्तेमाल से प्लास्टिक कचरों से निदान की संभावनाएं हो, पर जल्द विचार करते हुए धरातल पर उतरने की कोशिश की जानी चाहिए।

इसके अलावा प्लास्टिक को उत्पादन स्तर पर ही हतोत्साहित कर उनमें संलग्न कर्मियों को दूसरे रोजगार की तरफ उन्मुक्त करने और उनकी आर्थिक सहायता देने की भी जरुरत है। सेल्फहेल्प ग्रुप, एनजीओ भी प्लास्टिक कचरे का रीयूज़ एवं वर्तमान प्लास्टिक कल्चर को जीवनशैली से बाहर करने में माददगार हो सकते हैं। अंत में स्कूली पाठ्यक्रम में इसके खतरे और समाधान का विस्तृत वर्णन के साथ स्कूली बच्चों को इस दिशा में सजग करने की जरूरत है, ताकि भविष्य में इसका इस्तेमाल न हो सके।

रिपोर्टः शालिनी सिन्हा (पूर्व-रिसर्च एसोसिएट-केंद्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान, लखनऊ, गेस्ट फैकल्टी-एज़ाज़ रिज़्वी कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म एवं फ्रीलांस लेखिका)

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