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‘शाकाहारी मटन’ रुगड़ा ने दी दस्तकः फाइव स्टार होटल के मेन्यू कार्ड तक है पहुंच

The live ink desk. यहां पर जिस शाकाहारी मटन (Vegetarian Mutton) की बात हो रही है, उसे रुगड़ा (Rugda) कहते हैं। यह मशरूम (Rugda Mushroom) की प्रजाति से ताल्लुक रखता है।  वर्षा ऋतु (आषाढ़) में रुगड़ा बेसब्री से इंतजार किया जाता है। झारखंड (Jharkhand) के जंगलों में इसका जन्म होता है। रांची, खूंटी, लोहरदगा, लातेहार, चतरा, गुमला, सिमडेगा, हजारीबाग, पश्चिम सिंहभूमि में यह बहुतायत में पाया जाता है। अलग-अलग स्थानों पर लोग इसे फुटको, पुटका, पुट्टू और खुखड़ी के नाम से भी जानते हैं। इसका वैज्ञानिक नाम लाइपन पर्डन है। रुगड़ा अर्थात फुटको झारखंड के साथ उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और उत्तराखंड के वनों में पाया जाता है।

झारखंड के जंगलों में मानसून के आने पर जब बिजली कड़कती है और बरसात की बूंदों से जंगल की सोंधी खुशबू आसपास की बस्तियों तक पहुंचती है तो स्थानीय लोग रुगड़ा की तलाश में निकल पड़ते हैं। रुगड़ा का आकार एक छोटे आलू की तरह मटमैले और सफेद रंग का होता है। ऊपरी आवरण कड़क और अंदर से मुलायमियत भरी होती है। झारखंड (Jharkhand) के जंगलों में रुगड़ा की कई प्रजातियां पाई जाती हैं। इसमें सफेद रुगड़ा काफी लोकप्रिय और खाने में स्वादिष्ट होता है।

बरसात का सीजन (Rainy season) आते ही झारखंड की राजधानी रांची (Ranchi) में फुटको ने आमद दर्ज करा दी है। इसकी कीमत क्वालिटी के हिसाब से निर्धारित है। यह 500 से लेकर 2000 रुपये प्रति किलो तक हो सकती है। फिलहाल, रांची में यह 500 से 1000 रुपये किलो तक बिक रहा है।

जुलाई (July) से लेकर मध्य सितंबर (Med September) तक इसकी आमद बनी रहती है। स्थानीय आदिवासी जंगलों में जाकर इसे जमीन के अंदर से निकालते हैं। प्राकृतिक प्रोटीन से भरपूर रुगड़ा खाने में काफी लजीज होता है। अपने जायके की बदौलत अब इसकी पहुंच फाइव स्टार रेस्त्रां तक हो गई है। चंदन रुगड़ा (मटमैले रंग वाला) हजारीबाग के जंगलों में साल (सखुआ) के पेड़ के नीचे पाया जाता है। इसके लिए किसी भी प्रकार की खेती या मानवीय प्रयास नहीं किया जाता।

रुगड़ा का विकास पूरी तरह से जमीन के नीचे और स्वतः होता है। मानसून की पहली बरसात पाते ही साले के वृक्ष के नीचे वह जमीन फट जाती है, जहां पर रुगड़ा होता है। सावन (आषाढ़) के आते ही रांची की सड़कों पर जंगलों के किनारे से गुजरने वाले हाईवे पर रुगड़ा की छोटी-छोटी दुकानें दिखने लगती हैं। स्थानीय लोग इसे बड़े ही चाव से खाते हैं।

स्थानीय लोग कहते हैं कि जितना टेस्टी रुगड़ा की मसालेदार सब्जी होती है, उतना ही स्वादिष्ट रुगड़ा का झोल (तरी) होता है। यदि किसी को सर्दी, खांसी और जुकाम की समस्या हो तो रुगड़ा का झोल पीने से यह समस्या स्वतः खत्म हो जाती है।

रोग प्रतिरोधक क्षमता से युक्त रुगड़ा अस्थमा, कैंसर, स्किन डिजीज, कब्ज जैसी बीमारियों में फायदेमंद है। इसमें हाई फाइबर, प्रोटीन, विटमिन सी, बी कांप्लेक्स, विटमिन डी, फोलिक एसिड, लवण, कैल्शियम, फास्फोरस, पोटैशियम, राइबोलोन, थायमिन जैसे तत्वों की प्रचुरता होती है। आलू की तरह दिखने वाले 100 ग्राम रुगड़ा में 3.68 ग्राम प्रोटीन, 0.42 ग्रैम फैट, 3.11 ग्राम फाइबर और 1.98 ग्राम कार्बोहाइड्रेट मिलता है। रक्त की कमी को भी यह दूर करता है।

शुद्ध रूप से प्राकृतिक वातावरण में पाए जाने वाले रुगड़ा के संवर्धन के लिए अभी तक कोई ठोस पहल नहीं की जा सकी है। इसीलिए जमीन से निकालने के बाद 3-4 दिन तक ही यह सुरक्षित रह पाता है। हालांकि, बिरला इंस्टीट्यूट आफ टेक्नालेजी (बीआईटी), रांची के वैज्ञानिक रुगड़ा को लंबे समय तक सुरक्षित रखने के लिए प्रयासरत हैं और उन्हे काफी हद तक इसमें सफलता भी मिली है। भारतीय कृषि अनुरंधान परिषद भी इस दुर्लभ प्रजाति के रुगड़ा के व्यावसायिक उत्पादन के लिए प्रयासरत है।

बिरला इंस्टीट्यूट आफ टेक्नालाजी, रांची के साइंटिस्ट डा. रमेशचंद्र कहते हैं कि रुगड़ा पर लंबे समय तक शोध किया गया। अब इसे 3-4 माह तक सुरक्षित रखा जा सकेगा। इस प्रयास से रुगड़ा की पहुंच झारखंड के बाहर तक हो सकेगी। सीजन में इसका निर्यात भी संभव हो सकेगा।

बढ़ती आबादी और औद्योगीकरण से रुगड़ा के ऊपर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। पर्यावरण प्रदूषण, मानसून में अनियमितता के साथ-साथ तेजी से खत्म जंगलों के कारण रुगड़ा का उत्पादन पहले की अपेक्षा काफी कम हो गया है। स्थानीय लोग बताते हैं कि साल के दो माह तक सब्जी की कमी को पूरा करने वाला पौष्टिक तत्वों से भरपूर रुगड़ा के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है। जबकि पहले यह प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। जाहिर तौर पर इसके लिए जंगलों का घटता एरिया जिम्मेदार है।

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