अवधपश्चिमांचलपूर्वांचलबुंदेलखंडभारतराज्य

‘एक देश एक शिक्षा’ क्या हो सकेगा संभव!

आज हर तरफ ‘एक समान नागरिक संहिता’ की चर्चा है। काश कि ‘एक देश एक शिक्षा’ (one country one education) की भी बातें उठतीं। बिना शिक्षा के इंसान का जीवन व्यर्थ है और बिना समावेशी शिक्षा के समानता कैसे आएगी? जब शिक्षा में समानता का भाव सन्निहित नहीं, तो पूरे देश में आखिर किस आधार पर एक क़ानून पर सहमति बन सकेगी?

समानता लाने का प्रथम आधार है शिक्षा। भेदभाव पूर्ण शिक्षा से क्या हम समानता के स्तर तक पहुंच सकते है? शिक्षा ही वह माध्यम है जहां से समानता की शुरुआत होती है। परंतु देश का दुर्भाग्य है कि जिस शिक्षा से भेदभाव को समाप्त किया जाना था, आज उसी शिक्षा में सबसे अधिक भेदभाव मौजूद हैं। विभिन्न माध्यमों और उनके स्तरों पर तो भेदभाव विद्यमान हैं ही, साथ ही शहरी और ग्रामीण स्तरों पर स्थापित विद्यालय, कॉलेज भी व्यापक स्तर पर असमानता के शिकार हैं।

आज, बेहतर स्वास्थ्य हो या फिर अच्छी शिक्षा, सभी बड़े शहरों में ही उपलब्ध है। बड़े-बड़े इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज एवं उनकी शाखाएं केवल और केवल बड़े शहरों में ही स्थापित हैं। ऐसे में ग्रामीण परिवेश में रह रहे सभी बच्चे इतने बड़े संस्थानों में जाकर अपनी पढ़ाई पूरी कर सकेंगें? अगर जवाब नहीं है तो फिर समवेशी शिक्षा की बात कहां तक सार्थक है।

अच्छे कॉलेज तक पहुंच केवल कुछ मुट्ठी भर बौद्धिक और आर्थिक रूप से संपन्न लोगों तक ही सीमित है। ऐसे में शिक्षा तक सभी की समान पहुंच (one country one education) की बातें बेमानी हैं। जब कुछ लोग ही बेहतर शिक्षा पाएंगे तो रोजगार भी कुछ लोगों को ही मिलेगा और जिन्हें रोजगार मिलेगा वे ही आर्थिक रूप से सशक्त रहेंगे और देश की जीडीपी में भी केवल उन्हीं का योगदान रहेगा। बाकी तो लापरवाह और बेकार जनशक्ति के रूप में देश और उनकी आर्थिक व्यवस्था में एक दुष्चक्र की तरह फंसे रह जाएंगे। अंततः वे गरीब ही रह जाएंगे, जो कि किसी भी विकासशील देश के लिए ठीक नहीं है।

Plastic Waste: जीवन को संकट में डाल रहा खत्म न होने वाला कचरा, गंभीर चिंतन की जरूरत

ये ठीक बात है कि गावों में संसाधनों की भारी कमी है। मांग भी नहीं है। ना ही क्वालीफाइड फैकल्टी है। परंतु क्या हम गांव की शिक्षा के भरोसे उन करोड़ों के बच्चों के भविष्य के साथ समझौता कर सकते हैं? बच्चों के भविष्य पर जो खतरा उत्पन्न होगा, उसे छोड़ भी दें तो क्या हम अंततः देश की जीडीपी के डाउनफाल को संभाल सकेंगे?

शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है। राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में भी राज्यों पर शिक्षा का दायित्व डाला गया है। बावजूद इसके शिक्षा की अलग-थलग व्यवस्था की वजह से छात्रों का जीवन नष्ट होता चला जा रहा है। वर्तमान युग में शिक्षा सबसे बड़ी इंडस्ट्री के रूप में उभरी है। लेकिन, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा आज भी देश के चुनिंदा संस्थानों में ही उपलब्ध है।

यही वजह है उच्च शिक्षण संस्थानों की रैंकिंग (एनआईआरएफ रैंकिंग 2023) में 100 कॉलेजों की सूची में 35 कॉलेज केवल तमिलनाडु के हैं। अन्य राज्यों में सिर्फ दिल्ली, केरल और वेस्ट बंगाल के ही कॉलेज शामिल हैं। यानी देश के 28 राज्यों की सूची में से केवल इन्हीं चार राज्यों का प्रतिनिधित्व शामिल है, बाकी के 24 राज्य अपने ही देश की रैकिंग से नदारद हैं।

इसी बात से आप अन्य कॉलेजों की शिक्षा, उसकी गुणवत्ता और उनमें अध्ययनरत छात्रों के भविष्य का अंदाजा लगा सकते है। एक और बात हैरान करने वाली है कि देश के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की रैकिंग हो या फिर विश्व की, सभी में आईआईटीज़ ही शीर्ष पर हैं। इसका अर्थ यह है कि सरकारी या गैर सरकारी मदद केवल आईआईटीज़ को ही है। आईआईटीज़ में गरीब छात्रों को मात्र कुछ सीटें आरक्षण के रूप में उपलब्ध करवा देने से देश की शिक्षा व्यवस्था में एकरूपता नहीं आ सकती।

45 दिन का होगा महाकुंभ 2025, 13 जनवरी को पहला और 26 फरवरी को होगा आखिरी स्नान

 Dynamic DM: इरादा नेक-अडिग हो तो बाधाएं भी रास्ता छोड़ देती हैं

सर्वे बताता है कि गरीब पृष्ठभूमि के छात्र भले ही आईआईटीज़ में प्रवेश पा जाएं, अंत में वह असफल ही रह जाते हैं। इसका एकमात्र कारण है कि उनकी शैक्षणिक पृष्ठभूमि। ‘माध्यम’ (medium) भी कमजोर पृष्ठभूमि वाले विधार्थियों के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं है। ज्यादातर अच्छे कॉलेजों में पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी है, जो ग्रामीण पृष्ठभूमि में पढ़े छात्रों के लिए एक कठिन समस्या है।

आज शिक्षा में युद्धस्तर पर बदलाव की जरुरत है। नई शिक्षा नीति को जल्द से जल्द पूरे देश में लागू किया जाना चाहिए, साथ ही जिस तरह भारत में विदेशी स्कूलों की शाखाएं खोलने का काम होने जा रहा है, ठीक उसी प्रकार उच्च रैकिंग वाले देशी स्कूलों की भी शाखाएं ग्रामीण स्थानों पर खोली जानी चाहिए। एपीजे अब्दुल कलाम की “पूरा” की अवधारणा पर आज विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

बताते चलें कि आज देश के पास सबसे बड़ी चुनौती है कि यहां के युवा शिक्षित तो हैं मगर कौशलयुक्त नहीं है। देश में कौशल विकास कार्यक्रम चलाए जाने के बावजूद हम उस बदलाव तक नहीं पहुंच सकें हैं, जो आने वाले युग की आवश्यकता है। अतः युवाओं के लिए रोजगार की समस्या लगातार बनी हुई है। देश के पास युवा शक्ति तो है लेकिन वह ना तो कौशलयुक्त है और ना ही उनके पास रोजगार है। भारत की श्रम भागीदारी दर भी मात्र 39.9% (2022-23) ही है। यानी की काम करने की भूख भी जितनी होनी चाहिए, उतनी नहीं है। ऐसे में अगर इन युवाओं पर जल्द ध्यान ना दिया गया तो ये देश के लिए अनुत्पादक सिद्ध होंगे।

आमतौर पर इंटरमीडिएट या ग्रेजुएशन के बाद युवा सरकारी नौकरी की तैयारी में जुटते हैं, जिसमें तक़रीबन उनका 5-8 साल (अगर सफल ना हुए) बेकार चला जाता है। ऐसे में लगभग 30 की उम्र होने के बाद भी उनके पास ना तो कोई एक्स्ट्रा कौशल होता है ना ही अनुभव। विकल्प के रूप में उसके पास एकमात्र स्कूल टीचर या ट्युशन का रास्ता बचता है। यह विकल्प युवा अक्सर मज़बूरी में चुनते है। बाद में इसे छोड़ वह छोटा-मोटा व्यवसाय स्थापित करने की तरफ रुख करते हैं।

ऐसे में जो युवा देश के लिए बहुत कुछ उत्पादक कर सकता था, वह सीमित होकर सिकुड़ जाता है और उसकी प्रतिभा भी सिकुड़न के चलते दम तोड़ देती है।

सरकारी और गैरसरकारी संगठनों को यह प्रयास करना चाहिए कि स्कूली पढ़ाई के दरम्यान ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी सुनिश्चित हो सके। उचित काउंसिलिंग के जरिए बच्चों को भविष्य का विकल्प चुनने में उनकी मदद हो और ग्रेजुएशन के साथ-साथ अप्रेंटिसकी व्यवस्था करनी चाहिए, जिसमें युवाओं को पढ़ाई के साथ व्यावहारिक ज्ञान मिल सके। ताकि ग्रेजुएशन के बाद हर युवा के पास कंपनी के अनुरूप तीन साल का अनुभव प्राप्त हो। पढ़ाई भी कंपनी या आने वाले भविष्य के कौशल मांग के अनुरूप प्रैक्टिकल माध्यम से करवाई जानी चाहिए।

रिपोर्टः शालिनी सिन्हा (पूर्व-रिसर्च एसोसिएट-केंद्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान, लखनऊ, गेस्ट फैकल्टी-एज़ाज़ रिज़्वी कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म एवं फ्रीलांस लेखिका)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button